Friday, March 26, 2010

कैसी आजादी? तहसील की जेलो मे किसानो को दी जाती हैं यातनायें

एक छोटी सी कोठरी,उस कोठरी में सीलन और बदबू का साम्राज्य,छ्तो पर लटकते जाले और चमगादड़ । तहसील की ये जेलें उन किसानो के लिए हैं जो अपना कर्ज अदा नही कर पाते । करीब डेढ़ सौ साल पहले अंग्रेजो द्वारा किसानो के उत्पीड़न के लिए बनाए गये कानून के तहत आज भी किसानो को यातनायें दी जाती हैं । उत्तर प्रदेश मे जिन्दा इस कानून के कारण ही लाखो किसान इन काल कोठरियों मे कैद हो चुके हैं और अब भी बन्द किए जाते हैं । तहसील की ये जेलें अब उन बड़े बैंको के लिए कर्ज वसूली का हथियार है जिनका कर्ज किसान नही चुका पाते । आप को यकीन न हो तो प्रदेश की किसी भी तहसील की जेल मे इस सतही हकीकत से रूबरू हो सकते है । खास कर इन दिनो तो वित्तीय वर्ष की समाप्ती तक वसूली लक्ष्य को पूरा करने के लिए छोटे बकायेदारो को ढूढ़ ढूढ़ के इन तहसील की जेलो मे ठूसा जा रहा है ।
दरअसल ब्रिटिश हूकूमत ने वर्ष १९०१ में इंडियन रेवेन्यू रिकवरी एक्ट बनाया था । इस कनून में कर्ज वसूली के लिए किसानो के उत्पीड़न के प्रावधान हैं । आजादी के बाद यूपी जमींदारी विनास तथा भूमि ब्यवस्था अधिनियम १९५६ बनाया गया । इस कानून मे किसानो से कर्ज वसूली के लिए वही ब्यवस्थाएं हैं जो अंग्रेजो ने बनायी थी । बकाय वसूली के लिए किसानो की १४ दिनो की जेल होसकती है और उसकी सम्पत्ति कुर्क की जासकती है । इस कानून मे यह भी ब्यवस्था है कि बकाया चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो वसूली न होने पर किसानो को जेल भेज दिया जाय । इसका नतीजा यह है कि लाख और करोड़ रूपये के बकायेदार तो भयमुक्त हो कर घूम रहे है किन्तु उन्हे किसी को टोकने की भी हिम्मत नही होती जबकि छोटे बकायेदार दिन रात अप्ना खून पसीना एक कर देश भर का पेट भरने का काम करते है उनका तमाम तरह से उत्पीड़न किया जाता है । तहसील की इन जेलो में बंदियों को खाना पानी भी देने की ब्यवस्था नही होती । खाने पीने का इंतेजाम उन्हे अपने घर से करना होता है । यह सजा पाने के पीछे उनका कसूर बस इतना होता है कि वे अपने कृषि विकास के लिए बैंक से कर्ज लेते है और अपेक्षित लाभ न होने से वे कर्ज अदा नही कर पाते । इस के पीछे भी उन पर कहीं प्रकृति की मार होती है तो कही बैंक अफ़सरो की कमीशन खोरी जिसके करण वे कर्ज से उबर नही पाते और सरकार की यातनायें झेलने को विवस होते हैं । इस कानून को खत्म करने के लिए पूर्व मे कुछ सामाजिक संगठनो ने आन्दोलन भी किया था किन्तु अब इसके बिरोध मे आवाज भी नही उठती । देश के कई रज्यों की सरकारो ने तो इस काले कनून को समाप्त कर दिया है लेकिन उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड और पंजाब के किसानो को अभी भी इस काले कानून से छुटकारा नही मिल सका है । अब आप ही बताइये कि देश की रीढ़ कहे जने वाले किसान किस हद तक आजादी महसूस कर सकते है ?

Friday, February 5, 2010

तो मुंबई में अब एक टैक्सी चालक भी नहीं बन सकता ?

अभी पिछले महीने जनवरी में मै देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में था | यहाँ से तो सिर्फ १० दिन के ही सफ़र पर निकला था पर वहा कुछ मित्रो के आग्रह पर सूरत, दमन , सिलवासा और ददरानगर हवेली की सैर कर वापस मुंबई होकर घर लौटने में पूरे एक माह का समय बीत गया | मुंबई बोले तो आप जानते ही है , कहा जता है कि यह ऐसा शहर है जो कभी सोता ही नहीं है | देश के तमाम हिस्सों में बसे घरो के चूल्हे मुंबई की बदौलत ही जलते है, बिभिन्न रंग रूपों को समेटे यह महानगर न जाने कितने परिवारों की आजीविका का केंद्र बन गया है पर अफ़सोस की बात यह है कि यहाँ के कुछ बासिन्दे (मूल नहीं) इस महानगर को सिर्फ और सिर्फ अपना समझ बैठे है | उनकी ख़ास चिढ उत्तर भारतीयों से है | जी हाँ मै बात कर रहा हूँ शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे व अब उन्ही के नक्से कदम पर चल रहे उनके भतीजे और मनसे प्रमुख राज ठाकरे की | इनके पूर्वज भी इंदौर से जाकर वहा बस गए थे | यह समझना थोरा अटपटा लगता है कि जिन लोगो के कठिन परिश्रम से वहा के कल कर खाने चलते है और यातायात के संसाधन सुलभ है उन्ही से उनकी चिढ क्यों है ? शायद वे इस बात को पचा नहीं पते कि उत्तर भारत के किसी कोने से रोजी रोटी की तलास में खाली हाथ मुंबई जाने वाला बन्दा वडापाव खाकर दिन गुजार देता है और फुटपाथ पर सो कर रात बिता देता है लेकिन वही बन्दा एक दिन आटोरिक्शा या टैक्सी का ड्राइवर बनाता है और अपनी दिन रात की कमाई की बदौलत एक दिन टैक्सी का मालिक भी बनजाता है |

तक्नीकी या फिर किसी ब्यवसायिक तालीम के अभाव में उत्तर भारत से मुंबई जाने वाले बेरोजगार नौजवानों के लिए टैक्सी चालाक बनाना एक मुफीद रास्ता है लेकिन अब इसपर ठाकरे परिवार के अलावा महारास्ट्र सरकार की भी नज़र लग गयी है | अब उन राज्यों के लोग जो मुंबई में टैक्सी चलाने की ख़्वाहिश रखते हैं, उन्हें राज्य सरकार परमिट नहीं जारी करेगी. कारण साफ़ है मराठी भाषा की जानकारी और पिछले 15 सालों से राज्य के निवासी होने की शर्त.| सरकार के इस फरमान से तमाम टैक्सी चालको में मायूसी छा गयी है | मै बताऊ आप को कि पता नहीं क्या संयोग है कि पिछले पांच सालो से प्रत्येक साल मेरा मुंबई का एक सफ़रजरूर होजाता है | मुझे गुलाबी शहर जयपुर की भी यात्रा करनी हुई तो भी मै मुंबई होकर ही गया | वहा मेरे जीजा , दीदी और कई सगे संबंधी रहते है | मुझे ऐसा महसूस होता है यह शहर मेरा अपना शहर है. यहाँ की कई चीज़ें मुझे काफ़ी अच्छी लगती हैं, जिनमें से एक यहाँ की काली-पीली टैक्सियाँ भी हैं. यह टैक्सियाँ मुंबई की ख़ास पहचान में से एक है. मैं इन टैक्सी चालकों को भी बहुत पसंद करता हूँ | अपने इस यात्रा की एक कहानी आप को बताऊ मै अपने एक मित्र श्री राज यादव से मिलाने इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर गया था यहबात अभी ३० जनवरी की है | राज यादव इंडियन एक्सप्रेस में एडिटोरिअल विभाग में एक सम्मानित पद पर है | दफ्तर में काफी देर तक उनसे यहाँ वहा की बाते हुई उनके साथ साम को नास्ते के बाद मै बिदा लेलिया उनके पद और प्रतिष्ठा के मुताबिक़ मेरी हैसियत कुछ नहीं है फिर भी वह पूरे सम्मान के साथ दफ्तर के बहार तक आये | मुंबई के क्रीम प्लेस नरीमन पॉइंट में इस्थित २४ मंजिला की इस इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग से मै कुछ ही दूर गया था कि मेरे सेल फोन पर राज का फोन आया कि वापस आजाओ मै वापस गया तो पता चला वह मुझे कुछ गिफ्ट देना भूल गए थे मै उन्हें धन्यवाद देकर वापस हुआ तो चर्चगेट के लिए एक टैक्सी में स्वर होगया आगे सिग्नल पर टैक्सी खड़ी हुई तो चालाक से बाते होने लगी वह मेरे ही जिले के मडियाहू के राम अकबाल मौर्या थे | मैंने उनसे सरकार के इस हालिया फरमान पर चर्चा शुरू की तो उनकी पीड़ा सामने आयी उन्होंने कहा कि अगर सरकार का यह फरमान लागू हो गया तो मुझे और मेरे बेटे को भी कोई दूसरा रोजी रोजियार तलासना होगा | इसके बाद तो मैं इस सोच में डूब गया कि मुंबई में अब एक टैक्सी चालक भी नहीं बन सकता.लेकिन सवाल यह उठता है कि इन नियमों की ज़रूरत पड़ी ही क्यों?
यहाँ आम धारणा है कि यह एक राजनीतिक चाल है. ज़रा इस ख़बर पर ग़ौर कीजिए. 18 जनवरी को महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने यह एलान किया कि वो महाराष्ट्र में रहने वाले सभी परिवारों को चिठ्ठी भेजेंगे, जिसमें वो उनसे आम जीवन में मराठी भाषा का प्रयोग करने की अपील करेंगे. इस चिट्ठी को उनके कार्यकर्ता घर-घर जाकर पहुंचाएंगे. यह काम मराठी भाषा दिवस यानी 27 फ़रवरी को किया जाएगा .
यह सभी समझते हैं कि सरकार ने राज ठाकरे के इस एलान के दो दिनों बाद परमिट वाले नए नियमों का एलान क्यों किया ?
यह एक ऐसा हथियार है जिससे कांग्रेस पार्टी राज ठाकरे और शिव सेना के क़िलों में सेंध लगा सकती है. जानकारों की माने तो एक मंत्री ने पार्टी को यही सलाह दी कि राज ठाकरे को मात देने के लिए उसकी ही चाल चली जाए| अब तक राज ठाकरे मराठी भाषा के पक्ष में और हिंदी के ख़िलाफ़ जिहाद करते आए हैं अब कांग्रेस भी मैदान में कूद गई है लेकिन कभी-कभी ज़्यादा चालाकी भी अच्छी नहीं होती, जैसा कि इस मामले में हुआ, अब मुख्यमंत्री सफ़ाई दे रहे हैं कि परमिट के लिए स्थानीय भाषा का जानना ज़रूरी है और मराठी की तरह हिंदी और गुजराती भी मुंबई की स्थानीय भाषा है |

Friday, January 1, 2010

काहे का हैप्पी और काहे का न्यू ईयर.....!!

नव वर्ष की आगवानी कितने धूम धाम से हुई यह कोई बताने की बात नहीं रही । हमदुनिया की बात नहीं करे गे अपने देश में ही देखे लाखो - करोडो के पटाखे ,एस एम् एस , ग्रीटिंग और नजाने क्या - क्या खुसी के इज़हार के लिए पानी की तरह बहा दिए गए ।लेकिन नए साल की आगवानी पूरे जोशो खरोस और अपनी खुसी के इज़हार
के लिए पैसे उड़ाने वाले लोग क्या उन देशवासियो के बारे में भी सोचते है जिनके पास दो जून का चूल्हा भी जलानेका इन्तेजाम नहीं है । यकीन मानिए रात जब मै टी वी पर नव वर्ष के कार्यक्रम देख रहा था तो विभिन्न महानगरोमें वर्ष २००९ की विदाई तथा २०१० की आगवानी की खुशी में आतिश बाज़ी , नाच तमासो का आयोजन देख मेरे मन मस्तिस्क में बरबस ही उन गरीब बे सहारा और मज़लूमों की तस्वीर उभर आई जिनका परिवार दो वक्त की रोटीका भी मोहताज़ है । और शायद यही सोच कर मै अपने उन सुभेछुओ को रिप्लाई भी नहीं कर सका जिनके शुभकामना सन्देश मेरे मोबाइल पर आ रहे थे ।

सुबह जब सो कर उठा तो देखा घर के बच्चे सबके बिस्तर पर ही जा जा कर हैप्पी न्यू इयर बोल रहेथे
बच्चो में जैसे एक दूसरे को सबसे पहले विश करने की होड़ लगी थी। ठंढ अधिक थी बहार के सारे दृश्य कोहरे कीधुंध में ढ्के थे । मै गाव की तरफ निकल गया । दिहाड़ी मजदूरी करके खुद और तीन बच्चो का पेट पालने वालीकलावती अपनी झोपडी में आग जला कर ताप रही थी । मै उनका हाल पूछ रहा था तभी पाचवी में पढ़ने वाला
बालक सूरज दौडते हुए आया और बोला काकी हैप्पी न्यू ईयर उसका यह बोलना था कि काकी बोल पडी काहे का हैप्पी और काहे का न्यू ईयर बेटा ? सूरज बोला काकी जानती नही आज से नया साल लग गया
। काकी बोली बेटा हमहनी गरीब गुरबन क खातिर नया अऊर पुरान साल नाही होतै जब हाड मास पेरबै तबई साझी के चूल्हा जली नाही त भूखै बितावै क परी .... । उन दोनो की वार्ता मै सुने जा रहा था और रात मे टी वी परआतिश बाजी नज़ारे याद होते जा रहे थे । मै बगैर कुछ कहे उलटे पाव घर आगया और देर तक कलावती तथा उनजैसे लाचार और बेबस परिवारो के बारे मे ही सोचता रहा ।

Monday, December 28, 2009

जौनपुर की मूली को भी लगी जमाने की नज़र !

 

एक समय था की जब मूली ,मक्का और इत्र जौनपुर जिले की पहचान हुआ करते थे लेकिन इस जमाने को न जाने कैसी नज़र लगी कि जौपुरी मूली , मक्का और इत्र अब यहाँ के लिए बीते जमाने की बात हो गयी है । शार्की काल में शिक्षा की राज धानी रहे जौनपुर में अभी कोई दो दसक पहले तक मूली की पैदावार काफी अच्छी होती थी यहाँ की मूली छह से सात फीट लंबी व ढाई फीट मोटी होती थी। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण न सिर्फ इसका आकार घटा बल्कि इसकी मिठास भी कम होती गयी। मूली की महत्वपूर्ण प्रजातियों में पूसा रश्मि, जापानी सफेद, पूसा चेतकी, पूसा हिमानी, पूसा देशी व जौनपुरी नेवार यहाँ की प्रमुख प्रजातिया रही है । जिले के चितरसारी, हरखपुर, खुरचनपुर, प्रेमराजपुर, बोदकरपुर सहित लगभग जिले के सभी हिस्सों में जौनपुरी मूली की खेती की जाती थी। किसान खेतों से हल की तरह कंधे पर मूली लेकर घर आते थे।लेकिन अब वे बाते महज कहानी बनकर रह गयी है । जलवायु परिवर्तन के कारण इसका अस्तित्व खतरे में गया है । वर्तमान में इसकी लंबाई घटकर तीन से चार फीट और मोटाई लगभग एक फीट हो गयी है। जिले की इस पहचान को बचाने के लिए प्रसिद्ध डीएनए वैज्ञानिक डा।लालजी सिंह इस पर शोध कर रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक पहले इन गांवों में हुक्के वाली तंबाकू की खेती होती थी। तंबाकू की फसल काटने के बाद उसी खेत में किसान मूली की बुवाई करते थे । उस समय गोबर की खाद भरपूर मात्रा में डाली जाती थी। इससे मिंट्टी में जीवान्स की मात्रा अधिक होने के कारण मिंट्टी भुरभुरी व पोली होती थी परंतु तम्बाकू की खेती धीरे-धीरे कम हो गयी। वर्तमान में कल्टीवेटर से खेत की बार-बार एक ही सतह पर जुताई करने के कारण मिंट्टी में एक सख्त लेयर बन गयी है। मिंट्टी कड़ी होने के कारण मूली की लम्बाई और मोटाई कम हो गयी है। भूमि में जीवांश की मात्रा ०.२ ही रह गयी है जबकि स्वस्थ मिंट्टी में कार्बन की मात्रा 0.8 होनी चाहिए। खेतों में अधाधुंध रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भी आकार और उत्पादन प्रभावित हुआ है।

Sunday, December 27, 2009

गंगा जमुनी तहजीब की अनूठी मिशाल है जौनपुर की सरज़मी


गुलामी से ले कर अब तक यूँ तो देश के कई हिस्सों में साम्प्रदायिक तनाव , दंगा फसाद और खून खराबा जैसी घटनाए हुई पर उत्तर प्रदेश का जौनपुर जनपद सिर्फ ऐसी घटनाओं से अछूता रहा है बल्कि जाति , धर्म और सम्प्रदाय जैसी संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठ कर यहाँ के लोगो ने हर मौके पर एक दूसरे के सुख दुःख में हाथ बटा
कर दुनिया के सामने गंगा जमुनी तहजीब की एक अनूठी मिशाल पेश की है यहाँ राम लीला के मंचन में अस्फाक, इस्लाम और फ़िरोज़ जैसे पात्र राम लक्षमण और सीता की भूमिका में मिल जाएगे तो दूसरी तरफ सरदार पंछी , महेंद्र, और रामकृष्ण जैसे लोगो को मुहर्रम के महीने में नौहा ,मातम तथा ताज़िया दारी करते देखा जासकता है
करीब ४५ लाख की आबादी वाले इस जिले में मुस्लिमो की भी अच्छी खासी तादात है लेकिन धर्म- सम्प्रदाय जैसी संकीर्ण भावनाओं से अछूते इस जिले की आबो हवा कुछ ऐसी है कि होली ,दिवाली ईद और मुहर्रम जैसे पर्व पर हर कोई एक दुसरे की खुसी और गम को बाटने में नहीं चूकता
जौनपुर शहर के सदर इमामबाड़े के निकट मखदूम शाह अरहन मोहल्ले के जित्तू ,राजू, और जीतेन्द्र का परिवार हर साल मातम का महीना मुहर्रम की तैयारी में महीने भर पहले से ही जुट जाते है इस परिवार के लिए यह परम्परा कोई नयी नहीं है इनके पुरखो ने ही इसकी नीव डाली थी मुहर्रम के मौके पर यह परिवार ताज़िया बनाता है आज मुहर्रम की वी तारीख है रात मे अजा खानों में ताजिए रख दिए जाए गे कल इन्हें सिपुर्दे ख़ाक किया जाएगा इस मौके पर जीतू और उनके परिवार को ताज़िया बनाते देख किसी को भी सदियों से चली आरही यहाँ की गंगा जमुनी तहजीब प्रभावित कर देती है यही नहीं मगरेसर गाव के कन्हैया तिवारी ,रामजीत , जसे तमाम हिन्दू परिवार मुहर्रम और चेहल्लुम के मौके पर ताज़िया दारी करते है बात अगर जीतू और कन्हैया तक ही सीमित रह जाए गी तो मै समझता हु कि यह बात अधूरी ही रह जाएगी इसी जिले के मडियाहू तहसील के नेवढिया गाव के सलीम को ही देख ले आज से कोई १० साल पहले उन्हें ऐसी राम धुन लगी कि वह रामायण के ही मुरीद हो गए अब इलाके में कही भी रामायण के पाठ का आयोजन होता है तो कोइ भी सलीम को बुलाना नही भूलता यही के नसरुल्लाह को ही देख ले वह भी पिछले कई सालो से शारदीय नवरात्र के मौके पर अपने दरवाजे के सामने माँ दर्गा की प्रतिमा स्थापित करते है और पूरे नौ दिन तक ब्रत भी रखते है
जिले की गन्गा जमुनी तहज़ीब के तो ये सिर्फ़ चन्द नमूने है अगर आप शहर से लेकर गाव तक देखे गे तो यहा ऐसे नमूने कदम कदम पर मिल जएगे

Friday, December 25, 2009

कितना सही है जन्सन्ख्या के आधार पर योजनाओ का संचालन ?

रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूल भूत समस्या आज भी इस देश मे मुह बाये खड़ी है । इस जमीनी हकीकत को गाव से लेकर शहर तक कही भी देखा जा सकता है । शहरो मे कूड़ो के ढेर पर पलते बचपन,छाती फ़ाड़ रिक्शा-ठेला चलाने वाले लोग,ईट भट्ठो पर काम करने वाले मजदूर या फ़िर सड़क और रेलवे लाइन के किनारे तम्बू डाल कर खाना बदोस जीवन जी रहे इन्सानो की दुर्दशा देख कर अन्दाजा लगाया जासकता है कि २०२०तक विकसित देशो की कतार मे खड़े होने का सपना देख रहे इस देश का ख्वाब किस हद तक साकार हो पाये गा ।

दरअसल गरीबी की एक अहम वजह जनसन्ख्या मे हो रही बेतहासा बढ़ोत्तरी भी है और इस पर नियन्त्रण न पाने के लिए काफ़ी हद तक जिम्मेदार हमारी सरकारे भी है । ऐसा सिर्फ़ इस लिए होता है कि किसी भी राजनीतिक दल प्राथमिकता मे सत्ता पहले और देश का हित बाद मे होता है । १९७५ के आपात काल के बाद अचानक बदले देश के राजनीतिक परिद्रिश्य से भी सियासी दल सबक लेते होगे। शायद इसी लिए अब परिवार नियोजन जैसे मसले पर चर्चा भी न के बराबर होती है । अभी हाल ही मे सूबे की सरकार ने दलित बस्तियो सोलर लैम्प से जगमगाने की योजना बनाई है पर सरकार की इस योजना का लाभ सिर्फ़ उन बस्ती और पुरवो को मिलेगा जिनकी आबादी दो हज़ार से अधिक होगी । अब ऐसे मे भला बताइए कि उन बस्ती के लोग जनसन्ख्या को नियन्त्रित करने के लिए कितनी सन्जीदगी से सोचे गे जिनकी आबादी २००० से कम की होगी । यह तो महज एक बानगी है अम्बेडकर गाव और पन्चायतो मे आरक्ष्ण जैसी तमाम योजनाए जनसन्ख्या के अधार पर ही सन्चालित हो रही है । इसके पीछे सरकार की बस एक सोच हो सकती है कि अधिक से अधिक लोगो को खुस कैसे किया जासकता है ? अब आप बताइए कि सरकार की जनसन्ख्या के आधार पर योजनओ का सन्चालन कितन सही है ?

Thursday, December 24, 2009

तब उनके पास रोने के सिवा कुछ नही बचा था

दो दोस्त थे , दोनो ही मुसीबत के मारे थे । एक बार दोनो एक साथ घर से निकले और आपस मे बाते करते सुख और सम्रिद्धि की तलास मे निकल पडे । दोनो ने यह ठान लिया था कि अब तो ढेर सारी दौलत कमा कर ही घर लौटे गे । दोनो चल्ते जा रहे थे और तमाम आदर्श तथा अध्यात्म की बाते भी बतियाते चल रहे थे । एक ने कहा देख भाई मुझे तो बाबा जी की बाते ही सही लगती है ।दूसरे ने पूछा ओ क्या? पहले ने कहा वह कहते है कि समय से पहले और भग्य से अधिक नही मिलने वाला है । चाहे कित्ती भी नाक रगड ले ।
दूसरे दोस्त को ए बात नही जची उसने कहा तो फ़िर क्यो मेरे साथ चला आया ? बातो के साथ साथ रास्ते भी कट्ते जा रहे थे तभी दोनो एक ऐसी जगह पहुच गये जहा रस्ता बहुत पथरीला था । वहा एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था कि इन पत्थरो मे से जितना उठा सको उठा लो हा यह जान लो कि जो उठाए गा वह भी रोये गा और जो नही उठाये गा वह भी रोयेगा पर ध्यान ए भी रहे की यहा से एक कदम भी किसी ने पीछे हटाया तो वह यही का यही रह जाए गा वापस लौट कर घर नही जा पाये गा । दोनो दोस्त बडे चक्कर मे पड गाये एक ने कुछ कन्कड उठा कर रख लिए जब की दुसरे ने वह भी मुनासिब नही समझा । उन बडे- बडॆ पत्थरो के बीच से होते हुए जब वे कठिन डगर को पार करते बाहर निकले तो वहा भी एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था पीछे पत्थर की सक्ल मे पडी वस्तु हीरा है अगर आप उनमे से कुछ लाए हो तो यहा उसे बेच कर पैसे ले सकते हो । अब दोनो के पास रोने के सिवा कुछ नही बचा था । एक सिर पीट- पीट कर रो रहा है कि मै पत्थर का बडा टुकडा क्यो नही उठाया तो दूसरा छाती पीट- पीट कर रोये जा रहा और कहा कि मेरे पास तो चार चार जेब थी मै इनमे कन्कड ही क्यो नही रख लिया ।