Monday, December 28, 2009

जौनपुर की मूली को भी लगी जमाने की नज़र !

 

एक समय था की जब मूली ,मक्का और इत्र जौनपुर जिले की पहचान हुआ करते थे लेकिन इस जमाने को न जाने कैसी नज़र लगी कि जौपुरी मूली , मक्का और इत्र अब यहाँ के लिए बीते जमाने की बात हो गयी है । शार्की काल में शिक्षा की राज धानी रहे जौनपुर में अभी कोई दो दसक पहले तक मूली की पैदावार काफी अच्छी होती थी यहाँ की मूली छह से सात फीट लंबी व ढाई फीट मोटी होती थी। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण न सिर्फ इसका आकार घटा बल्कि इसकी मिठास भी कम होती गयी। मूली की महत्वपूर्ण प्रजातियों में पूसा रश्मि, जापानी सफेद, पूसा चेतकी, पूसा हिमानी, पूसा देशी व जौनपुरी नेवार यहाँ की प्रमुख प्रजातिया रही है । जिले के चितरसारी, हरखपुर, खुरचनपुर, प्रेमराजपुर, बोदकरपुर सहित लगभग जिले के सभी हिस्सों में जौनपुरी मूली की खेती की जाती थी। किसान खेतों से हल की तरह कंधे पर मूली लेकर घर आते थे।लेकिन अब वे बाते महज कहानी बनकर रह गयी है । जलवायु परिवर्तन के कारण इसका अस्तित्व खतरे में गया है । वर्तमान में इसकी लंबाई घटकर तीन से चार फीट और मोटाई लगभग एक फीट हो गयी है। जिले की इस पहचान को बचाने के लिए प्रसिद्ध डीएनए वैज्ञानिक डा।लालजी सिंह इस पर शोध कर रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक पहले इन गांवों में हुक्के वाली तंबाकू की खेती होती थी। तंबाकू की फसल काटने के बाद उसी खेत में किसान मूली की बुवाई करते थे । उस समय गोबर की खाद भरपूर मात्रा में डाली जाती थी। इससे मिंट्टी में जीवान्स की मात्रा अधिक होने के कारण मिंट्टी भुरभुरी व पोली होती थी परंतु तम्बाकू की खेती धीरे-धीरे कम हो गयी। वर्तमान में कल्टीवेटर से खेत की बार-बार एक ही सतह पर जुताई करने के कारण मिंट्टी में एक सख्त लेयर बन गयी है। मिंट्टी कड़ी होने के कारण मूली की लम्बाई और मोटाई कम हो गयी है। भूमि में जीवांश की मात्रा ०.२ ही रह गयी है जबकि स्वस्थ मिंट्टी में कार्बन की मात्रा 0.8 होनी चाहिए। खेतों में अधाधुंध रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भी आकार और उत्पादन प्रभावित हुआ है।

Sunday, December 27, 2009

गंगा जमुनी तहजीब की अनूठी मिशाल है जौनपुर की सरज़मी


गुलामी से ले कर अब तक यूँ तो देश के कई हिस्सों में साम्प्रदायिक तनाव , दंगा फसाद और खून खराबा जैसी घटनाए हुई पर उत्तर प्रदेश का जौनपुर जनपद सिर्फ ऐसी घटनाओं से अछूता रहा है बल्कि जाति , धर्म और सम्प्रदाय जैसी संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठ कर यहाँ के लोगो ने हर मौके पर एक दूसरे के सुख दुःख में हाथ बटा
कर दुनिया के सामने गंगा जमुनी तहजीब की एक अनूठी मिशाल पेश की है यहाँ राम लीला के मंचन में अस्फाक, इस्लाम और फ़िरोज़ जैसे पात्र राम लक्षमण और सीता की भूमिका में मिल जाएगे तो दूसरी तरफ सरदार पंछी , महेंद्र, और रामकृष्ण जैसे लोगो को मुहर्रम के महीने में नौहा ,मातम तथा ताज़िया दारी करते देखा जासकता है
करीब ४५ लाख की आबादी वाले इस जिले में मुस्लिमो की भी अच्छी खासी तादात है लेकिन धर्म- सम्प्रदाय जैसी संकीर्ण भावनाओं से अछूते इस जिले की आबो हवा कुछ ऐसी है कि होली ,दिवाली ईद और मुहर्रम जैसे पर्व पर हर कोई एक दुसरे की खुसी और गम को बाटने में नहीं चूकता
जौनपुर शहर के सदर इमामबाड़े के निकट मखदूम शाह अरहन मोहल्ले के जित्तू ,राजू, और जीतेन्द्र का परिवार हर साल मातम का महीना मुहर्रम की तैयारी में महीने भर पहले से ही जुट जाते है इस परिवार के लिए यह परम्परा कोई नयी नहीं है इनके पुरखो ने ही इसकी नीव डाली थी मुहर्रम के मौके पर यह परिवार ताज़िया बनाता है आज मुहर्रम की वी तारीख है रात मे अजा खानों में ताजिए रख दिए जाए गे कल इन्हें सिपुर्दे ख़ाक किया जाएगा इस मौके पर जीतू और उनके परिवार को ताज़िया बनाते देख किसी को भी सदियों से चली आरही यहाँ की गंगा जमुनी तहजीब प्रभावित कर देती है यही नहीं मगरेसर गाव के कन्हैया तिवारी ,रामजीत , जसे तमाम हिन्दू परिवार मुहर्रम और चेहल्लुम के मौके पर ताज़िया दारी करते है बात अगर जीतू और कन्हैया तक ही सीमित रह जाए गी तो मै समझता हु कि यह बात अधूरी ही रह जाएगी इसी जिले के मडियाहू तहसील के नेवढिया गाव के सलीम को ही देख ले आज से कोई १० साल पहले उन्हें ऐसी राम धुन लगी कि वह रामायण के ही मुरीद हो गए अब इलाके में कही भी रामायण के पाठ का आयोजन होता है तो कोइ भी सलीम को बुलाना नही भूलता यही के नसरुल्लाह को ही देख ले वह भी पिछले कई सालो से शारदीय नवरात्र के मौके पर अपने दरवाजे के सामने माँ दर्गा की प्रतिमा स्थापित करते है और पूरे नौ दिन तक ब्रत भी रखते है
जिले की गन्गा जमुनी तहज़ीब के तो ये सिर्फ़ चन्द नमूने है अगर आप शहर से लेकर गाव तक देखे गे तो यहा ऐसे नमूने कदम कदम पर मिल जएगे

Friday, December 25, 2009

कितना सही है जन्सन्ख्या के आधार पर योजनाओ का संचालन ?

रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूल भूत समस्या आज भी इस देश मे मुह बाये खड़ी है । इस जमीनी हकीकत को गाव से लेकर शहर तक कही भी देखा जा सकता है । शहरो मे कूड़ो के ढेर पर पलते बचपन,छाती फ़ाड़ रिक्शा-ठेला चलाने वाले लोग,ईट भट्ठो पर काम करने वाले मजदूर या फ़िर सड़क और रेलवे लाइन के किनारे तम्बू डाल कर खाना बदोस जीवन जी रहे इन्सानो की दुर्दशा देख कर अन्दाजा लगाया जासकता है कि २०२०तक विकसित देशो की कतार मे खड़े होने का सपना देख रहे इस देश का ख्वाब किस हद तक साकार हो पाये गा ।

दरअसल गरीबी की एक अहम वजह जनसन्ख्या मे हो रही बेतहासा बढ़ोत्तरी भी है और इस पर नियन्त्रण न पाने के लिए काफ़ी हद तक जिम्मेदार हमारी सरकारे भी है । ऐसा सिर्फ़ इस लिए होता है कि किसी भी राजनीतिक दल प्राथमिकता मे सत्ता पहले और देश का हित बाद मे होता है । १९७५ के आपात काल के बाद अचानक बदले देश के राजनीतिक परिद्रिश्य से भी सियासी दल सबक लेते होगे। शायद इसी लिए अब परिवार नियोजन जैसे मसले पर चर्चा भी न के बराबर होती है । अभी हाल ही मे सूबे की सरकार ने दलित बस्तियो सोलर लैम्प से जगमगाने की योजना बनाई है पर सरकार की इस योजना का लाभ सिर्फ़ उन बस्ती और पुरवो को मिलेगा जिनकी आबादी दो हज़ार से अधिक होगी । अब ऐसे मे भला बताइए कि उन बस्ती के लोग जनसन्ख्या को नियन्त्रित करने के लिए कितनी सन्जीदगी से सोचे गे जिनकी आबादी २००० से कम की होगी । यह तो महज एक बानगी है अम्बेडकर गाव और पन्चायतो मे आरक्ष्ण जैसी तमाम योजनाए जनसन्ख्या के अधार पर ही सन्चालित हो रही है । इसके पीछे सरकार की बस एक सोच हो सकती है कि अधिक से अधिक लोगो को खुस कैसे किया जासकता है ? अब आप बताइए कि सरकार की जनसन्ख्या के आधार पर योजनओ का सन्चालन कितन सही है ?

Thursday, December 24, 2009

तब उनके पास रोने के सिवा कुछ नही बचा था

दो दोस्त थे , दोनो ही मुसीबत के मारे थे । एक बार दोनो एक साथ घर से निकले और आपस मे बाते करते सुख और सम्रिद्धि की तलास मे निकल पडे । दोनो ने यह ठान लिया था कि अब तो ढेर सारी दौलत कमा कर ही घर लौटे गे । दोनो चल्ते जा रहे थे और तमाम आदर्श तथा अध्यात्म की बाते भी बतियाते चल रहे थे । एक ने कहा देख भाई मुझे तो बाबा जी की बाते ही सही लगती है ।दूसरे ने पूछा ओ क्या? पहले ने कहा वह कहते है कि समय से पहले और भग्य से अधिक नही मिलने वाला है । चाहे कित्ती भी नाक रगड ले ।
दूसरे दोस्त को ए बात नही जची उसने कहा तो फ़िर क्यो मेरे साथ चला आया ? बातो के साथ साथ रास्ते भी कट्ते जा रहे थे तभी दोनो एक ऐसी जगह पहुच गये जहा रस्ता बहुत पथरीला था । वहा एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था कि इन पत्थरो मे से जितना उठा सको उठा लो हा यह जान लो कि जो उठाए गा वह भी रोये गा और जो नही उठाये गा वह भी रोयेगा पर ध्यान ए भी रहे की यहा से एक कदम भी किसी ने पीछे हटाया तो वह यही का यही रह जाए गा वापस लौट कर घर नही जा पाये गा । दोनो दोस्त बडे चक्कर मे पड गाये एक ने कुछ कन्कड उठा कर रख लिए जब की दुसरे ने वह भी मुनासिब नही समझा । उन बडे- बडॆ पत्थरो के बीच से होते हुए जब वे कठिन डगर को पार करते बाहर निकले तो वहा भी एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था पीछे पत्थर की सक्ल मे पडी वस्तु हीरा है अगर आप उनमे से कुछ लाए हो तो यहा उसे बेच कर पैसे ले सकते हो । अब दोनो के पास रोने के सिवा कुछ नही बचा था । एक सिर पीट- पीट कर रो रहा है कि मै पत्थर का बडा टुकडा क्यो नही उठाया तो दूसरा छाती पीट- पीट कर रोये जा रहा और कहा कि मेरे पास तो चार चार जेब थी मै इनमे कन्कड ही क्यो नही रख लिया ।

Saturday, December 19, 2009

सरकार की टाल मटोल रवैए से आहात होती भावनाए

आज से करीब ५ साल पहले केन्द्र सरकार ने जब सच्चर कमेटी का गठन किया था तो देश के अल्पसंख्यको
ने विकास की एक नई किरण का उदय होने का सपन देखा था । लेकिन अब कमेटी कि सिफ़ारिसो को लागू करने मे सरकार की ओर से की जा रही हीला हवाली ने आन्दोलन की राह पकड ली है ।
दर असल देश के अल्पसंख्यको की सामाजिक , आर्थिक और तालीमी स्तर की सही स्थिति का पता लगाने और उसमे सुधार लाने के लिए ही इस कमेटी के गठन की जरूरत मह्शूस की गयी थी । न्याय मूर्ति रजेन्द्र सच्चर की सदारत मे गठित इस उच्च स्तरीय समिति ने देर से ही सही किन्तु जब अपनी ४२५ पन्नो की रेपोर्ट सरकार को सौप दी और सन्सदीय कर्य मन्त्री ने उसे सदन मे पेस भी कर दिया तो उसमे होरही देरी का करण क्या हो सकता है ? ऐसे मे सरकार अपनी मजबूरी के कारन भी स्पष्ट नही कर रही है तो इस लोकतन्त्रिक ब्य्वस्था मे अल्प्सन्ख्यको को अन्दोलित होना लाजमी भी है । आखिर एक तरफ़ सरकार अल्प्सन्ख्यको की हिमायती भी बन रही है दुसरे उनकी आकान्छाओ को पूरा करने मे उदासीनता भी बरत रही है तो लोगो मे सरकार की इस लचर रवैये के खिलाफ़ गुस्सा तो पनपे गा ही । उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले मे अल्प्सन्ख्यक अधिकार दिवस के मौके पर
आजाद शिक्षा केन्द्र के तत्वाधान में एक जन जागरूकता रैली सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के लिए निकाली गयी।रैली की शुरूआत आजाद शिक्षा केन्द्र, सिपाह के कार्यालय से मानिक चौक, राजा साहब के फाटक होते हुए अटाला मस्जिद से कोतवाली, चहारसू चौराहे से होते हुए शाही किला पर समाप्त हुयी। रैली में मौलाना आजाद तालीमी मरकज के बच्चे नारे लिखी तख्तियां एवं सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू करो, मौलाना आजाद एजूकेशनल फाण्डेशन का वार्षिक फण्ड बढ़ाया जाए, रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट लागू करो, मुसलमानों का शोषण बन्द हो आदि नारेलगाते हुए आगे बढ़ रहे थे। रैली के दौरान सच्चर कमेटी की सिफारिश के पर्चे बांटे गये।

Friday, December 18, 2009

विकास का कौन सा सपना देख रहे है पूर्वांचल की वकालत करने वाले लोग ?

वैसे तो पूर्वांचल राज्य के गठन की मांग काफी लम्बे समय से चली आरही है लेकिन बीच में यह आन्दोलन कमजोर पड़ गया था । लेकिन इधर तेलंगाना की बहस छिड़ते ही इस बुझते आन्दोलन को जैसे नई ऊर्जा मिल गयी है । मुख्यमंत्री मायावती ने भी जोर सोर से छिड़ी इस बहस की आग में तपते तवे पर राजनीति की रोटी सेंकने में कोई कोर कसार बाकी नहीं रखी और उन्हों ने केंद्र सरकार को आनन् फानन में प्रस्ताव भी भेज दिया । अब सवाल यह उठता है की पूर्वांचल राज्य के गठन की वकालत करने वाले लोग आखिर किस विकास का सपना देख रहे है ? क्या पूर्वांचल या फिर पूरे उत्तर प्रदेश की दुर्दशा का कारण यही है की इसकी गिनती रकबे की दृष्टी से बड़े राज्यों में होती है ?

image किसी राज्य की दुर्दशा इस बात पर निर्भर है कि उसे चलाने वालों का दिमाग़ कितना छोटा है, न कि राज्य कितना बड़ा है। जरा सोचिए अलग राज्य बन जाने के बाद ' क्या गरीबो के लिए दो जून की रोटी का बंदोबस्त होजाएगा ? इन सवालों के जवाब आम जनता के पास है लेकिन चिंता की बात यह है कि अलग राज्य के गठन की मांग करने वालो की भीड़ में आम जनता नहीं दिख रही है । इस भीड़ में तो सिर्फ वे लोग दिख रहे है जो विधायक,मंत्री या मुख्यमंत्री बनने के सपने पाल रखे है । पूर्वांचल राज्य के गठन की वकालत करने की नज़र में छोटे राज्य बनने के कई फ़ायदे हैं, मसलन अधिक लोगों को मंत्री बनने का मौक़ा मिलता है, अधिक अफ़सरों को नए कैडर में ऊँचे रैंक मिलते हैं, सड़क पर लाल बत्ती वाली गाड़ियाँ दिखती हैं जिससे शहर का रुतबा बढ़ता है. नई-नई योजनाओं के लिए पैसे आते हैं,

पड़ोसी राज्यों से ठेकेदार आते हैं, नई कारों के शोरूम खुलते हैं, होटल-रेस्तराँ-बार, सबका धंधा फलता-फूलता है.छोटे राज्य की अपनी विधानसभा भी होती है, छोटे राज्य में प्रतिभा पर रोक नहीं होती, निर्दलीय विधायक मुख्यमंत्री तक बन सकते हैं, राजनीतिक कौशल दिखाने के अवसर बढ़ते हैं, अगर दो-तीन 'योग्य' विधायक हों तो वे सरकार गिरा सकते हैं या बना सकते हैं. एक रिटायर हो रहे नेता के लिए गर्वनरी का विकल्प भी उपलब्ध होता है. झारखंड के मुख्यमंत्री रहे मधु कोड़ा इस बात के ताज़ा उदाहरण है । मेरा मतलब कि अगर आप छोटे राज्य का एकेडेमिक आधार पर समर्थन करते हैं तो कोई एतराज़ की बात नहीं है, अगर आप उसे करियर ऑप्शन के तौर पर देख रहे हैं तो आपका भविष्य उज्ज्वल हो सकता है.लेकिन छोटे राज्य के सहारे अगर गरीबी दूर करने ,विकास की गंगा बहाने की सोच रहे है तो बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से टूट कर अलग हुए झारखंड ,छत्तीस गढ़ और उत्तरा खंड की आम आवाम की राय लेनी चाहिए ।

Thursday, December 17, 2009

क्यो नहीं होती इतिहास को जानने की कोशिसे ?

उत्तर प्रदेश का जौनपुर जनपद काफी प्राचीन जिला है करीब ४५ लाख की भारी भरकम आबादी वाले इस जिले के विभिन्न इलाके में मौजूद ऐतिहासिक धरोहरे इस बात की गवाह भी है । मसलन शाही किला, अटाला मस्जिद , शाही पुल और तमाम शाही मकबरे , केरार बीर का मंदिर, त्रिलोचन महादेव जैसे सैकड़ो ऐतिहासिक , दार्शनिक और पुरातात्विक स्थल इस जिले की प्राचीनता को बया करते है । बस इतना ही नहीं शार्की काल में जौनपुर जनपद देश की राजधानी भी रहा है । और आज भी इसे शिराजे हिंद के नाम से जाना जाता है । सिराजे हिंद इसलिए कहा गया की शार्की काल में एजुकेशन की दृष्टि से इरान देश का शिराज शहर अत्त्याधिक समृद्ध शाली था और उस दौर में वहा से तमाम उलेमा जौनपुर आकर तालीम का प्रचार प्रसार किए तभी से इस शहर की तुलना शिराज से करते हुए जौनपुर को शिराज़े हिंद कहा जाने लगा । तालीम की बदौलत ही आज भी इस जिले की मिट्टी में पले बढ़े तमाम लोग देश और विदेश में विभिन्न उच्च पदों पर आसीन हो कर जिले का गौरव बढ़ा रहे है ।
पर अफ़सोस इस बात की है कि इस प्राचीन जिले में आज भी बहुत से ऐतिहासिक स्थल ऐसे पड़े है जो इतिहास कारो और पुरातत्वविदों कि नज़र से अनछुए रह गए है । आज से करीब आठ साल पहले जिले के बख्शा विकास खंड के दरियाव गंज गांव में पीली और गोमती नदी के मुहाने पर स्थित टीले के नीची दबे कुषाण कालीन अवशेष मिले थे । अभी जाफराबाद इलाके में खुदाई के दौरान मुग़ल कालीन सिक्के मिले थे । और अब इसी इलाके के
तहरपुर कजगांव गांव में खेत की खुदाई को दौरान मंगलवार को दुर्गा प्रतिमा मिली। ग्रामीणों ने नीम के पेड़ के नीचे प्रतिमा स्थापित कर हवन-पूजन शुरू कर दिया है।
तहरपुर गांव निवासी मुन्नू यादव कुएं का जगत बनाने हेतु अपने खेत से मिंट्टी खुदवा रहा था। खुदाई के दौरान फावड़े से कुछ टकरा गया। मजदूरों ने गहराई तक खोदा तो डेढ़ फीट लंबी मां दुर्गा की प्रतिमा मिली।
सूचना मिलते ही क्षेत्र के सैकड़ों लोग मौके पर पहुंच गये। कुछ लोगों ने प्रतिमा को नदी में विसर्जित करने का प्रस्ताव रखा। इस बात की जानकारी होते ही गांव की महिलाओं ने पहुंचकर विरोध किया। कहा प्रतिमा विसर्जित नहीं होगी। इसे स्थापित किया जाएगा। महिलाओं ने नीम के पेड़ के नीचे प्रतिमा स्थापित कर दिया। पचरा और देवी गीत से गांव भक्तिमय हो गया। पर ऐतिहासिक दृष्टि कोण से महत्वपूर्ण इन स्थलों पर उत्खनन की पहल न तो जिला प्रशासन की तरफ से हो रही है और न ही किसी विश्व विद्यालय की तरफ से । जब कि जान कारो का भी मानना है कि इन महत्वपूर्ण स्थलों पर उत्खनन कराया जाए तो जिले के भूगर्भ में दबे अवशेषों से कई अनछुए इतिहासों का रहस्योद्घाटन होसकता है किन्तु जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग न जाने क्यों अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन और जनाकान्छाओ को पूरा करने में कोई दिलचश्पी नहीं दिखा रहे है ।