Friday, December 25, 2009

कितना सही है जन्सन्ख्या के आधार पर योजनाओ का संचालन ?

रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूल भूत समस्या आज भी इस देश मे मुह बाये खड़ी है । इस जमीनी हकीकत को गाव से लेकर शहर तक कही भी देखा जा सकता है । शहरो मे कूड़ो के ढेर पर पलते बचपन,छाती फ़ाड़ रिक्शा-ठेला चलाने वाले लोग,ईट भट्ठो पर काम करने वाले मजदूर या फ़िर सड़क और रेलवे लाइन के किनारे तम्बू डाल कर खाना बदोस जीवन जी रहे इन्सानो की दुर्दशा देख कर अन्दाजा लगाया जासकता है कि २०२०तक विकसित देशो की कतार मे खड़े होने का सपना देख रहे इस देश का ख्वाब किस हद तक साकार हो पाये गा ।

दरअसल गरीबी की एक अहम वजह जनसन्ख्या मे हो रही बेतहासा बढ़ोत्तरी भी है और इस पर नियन्त्रण न पाने के लिए काफ़ी हद तक जिम्मेदार हमारी सरकारे भी है । ऐसा सिर्फ़ इस लिए होता है कि किसी भी राजनीतिक दल प्राथमिकता मे सत्ता पहले और देश का हित बाद मे होता है । १९७५ के आपात काल के बाद अचानक बदले देश के राजनीतिक परिद्रिश्य से भी सियासी दल सबक लेते होगे। शायद इसी लिए अब परिवार नियोजन जैसे मसले पर चर्चा भी न के बराबर होती है । अभी हाल ही मे सूबे की सरकार ने दलित बस्तियो सोलर लैम्प से जगमगाने की योजना बनाई है पर सरकार की इस योजना का लाभ सिर्फ़ उन बस्ती और पुरवो को मिलेगा जिनकी आबादी दो हज़ार से अधिक होगी । अब ऐसे मे भला बताइए कि उन बस्ती के लोग जनसन्ख्या को नियन्त्रित करने के लिए कितनी सन्जीदगी से सोचे गे जिनकी आबादी २००० से कम की होगी । यह तो महज एक बानगी है अम्बेडकर गाव और पन्चायतो मे आरक्ष्ण जैसी तमाम योजनाए जनसन्ख्या के अधार पर ही सन्चालित हो रही है । इसके पीछे सरकार की बस एक सोच हो सकती है कि अधिक से अधिक लोगो को खुस कैसे किया जासकता है ? अब आप बताइए कि सरकार की जनसन्ख्या के आधार पर योजनओ का सन्चालन कितन सही है ?

1 टिप्पणियाँ:

Arvind Mishra said...

सही आकलन